बचपन की 13 ग़लतियाँ जिनका एहसास बाद में होता है 13 Biggest Mistakes Of Childhood In Hindi
13 Biggest Mistakes Of Childhood In Hindi
1. व्यसन
बचपन अथवा किशोरावस्था में कुतूहलवश या साथियों द्वारा कुप्रेरित किये जाने पर व्यक्ति मादक द्रव्यों व क्रियाओं को एक बार टेस्ट करने की कोशिश करता है फिर दुर्व्यसन की चपेट में जा फँसता है, देर-सबेर बड़े होने, कुछ परिपक्व अथवा समझदार होने पर उसे अपनी भूलों का एहसास होता है।
यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि ग़लत चीज़ एक बार की जाये या अधिक बार वह ग़लत ही होती है। यदि अज्ञानता वश एक-दो बार उसे कर भी लिया तो अब उससे पूर्णतया दूर रहने की शपथ ग्रहण कर लें। नशों से नुकसान व इनसे कैसे बचें आलेख पढ़ा जा सकता है।
2. लैंगिक कृत्य
हस्तमैथुन, पोर्न वीडियोज़, यौन सम्बन्ध इत्यादि की ओर व्यक्ति आरम्भ में दुष्प्रेरित हो जाता है किन्तु बाद में उसके मन में पश्चाताप् होता है कि मैंने इन ग़लत बातों में पहल ही क्यों की।
सेक्सुअल बातों को सोच-सोचकर व्यक्ति जबरन यौन-आकर्षित होने लगता है तो कभी इस मनगढंत आकर्षण को प्रेम समझने की भारी भूल कर बैठता है एवं इसे सामान्य अथवा स्वाभाविक मान बैठता है जबकि ऐसा व्यक्ति जान-बूझकर करता है क्योंकि कामेच्छा कोई आवश्यकता अथवा नैसर्गिक नहीं है बल्कि मन से बनायी चाह है जिसे मन से ही मिटाया जा सकता है।
अतः आवश्यक है कि व्यक्ति आरम्भ से ही इन सबमें निरर्थक सुख ढूँढने की कोशिश से दूर रहे एवं सामने ऐसा अवसर उपस्थित होने पर भी उसे नकार दे एवं उससे अपने आप को सर्वथा बचा ले। पोर्न से 5 नुकसान, क्यों नही करना चाहिए हस्तमैथुन, कई पापों व हानियों की जड़ कामेच्छा को जड़ से मिटाने के 21 उपाय इत्यादि आलेख पढ़े जा सकते हैं।
13 Biggest Mistakes Of Childhood In Hindi
3. कुसंगत
दूसरों से होड़ मचाना, तुलना करना, हीनभाव-ईर्ष्या व द्वेष कोई माँ के पेट से सीखकर तो नहीं आता, ये सब बुराइयाँ व्यक्ति के मन में उन लोगों द्वारा भरी जाती हैं जिनके साथ वह रहता, खाता अथवा उठता-बैठता है. संगति परिवार से ही आरम्भ हो जाती है एवं बच्चा जब बड़ा होने लगे तो बाहर की हवा लगने से स्थिति काफ़ी ख़राब हो सकती है.
समाज की बुराइयों को अपनाकर व्यक्ति जब कुमार्ग पर आगे बढ़ निकलता है तो मृगमरीचिका उसे सताने लगती है एवं उसे लगने लगता है कि अब बहुत देर हो गयी !
खैर ! यहाँ हम सबको यह समझना आवश्यक है कि देर आये दुरुस्त आये जब जागो तभी सवेरा. कभी भी इतनी देर वास्तव में हो ही नहीं सकती कि पुनः सन्मार्ग की ओर लौटना असम्भव हो जाये। संसारी सुखों की नष्वरता एवं बुराइयों की नकारात्मकताओं के बारे में सोचेंगे तो पाँव पुनः भटककर ग़लत पथ पर नहीं जायेंगे। पाँव बहकने से कैसे रोकें आलेख पठनीय है।
4. नश्वरता
भौतिक सुख-सुविधाओं को सच माने बैठा व्यक्ति सोचना ही नहीं चाहता कि जीवन परमोद्देष्य मोक्ष के लिये मिला है, ऐसे तथाकथित सुखों में अपना समय व ध्यान क्यों खपाना जिनका कोई औचित्य नहीं, हर क्षण परमात्मा-भक्ति व परमार्थ के कार्यों को निष्काम भाव से करने में लगना चाहिए। धन-प्रतिष्ठा को कौन मरणोपरान्त साथ ले जा पाया है ? जीवन का वास्तविक उद्देष्य क्या है नामक आलेख अनिवार्यत पढ़ें।
5. देखा देखी होड़
दसवीं अथवा बारहवीं के पश्चात् शैक्षणिक विषय-चयन में अपनी जान-पहचान वालों अथवा मीडिया में प्रसिद्ध लोगों की देखादेखी स्वयं भी किसी विषय को चुन लेने का हर्ज़ाना जीवन भर भरना पड़ सकता है, अपनी रुचि एवं भविष्य में उस विषय की आवश्यकताओं व माँग के बारे में सोचें।
तथाकथित कैरियर-काउंसलर्स इत्यादि के चक्रव्यूह में न उलझें जो चयनित संस्थानों व समूहों के हाथों बिके हुए हो सकते हैं एवं उनके अपने पूर्वनिर्धारित विषयों में आपको ढकेलने का प्रयास कर सकते हैं।
हो सकता है कि चिकित्सा का क्षेत्र आपको आकर्षक लगे परन्तु ध्यान रहे कि आजकल यहाँ स्पर्धा बहुत बढ़ा दी गयी है एवं कई बार तो बाल सफेद होने तक व्यक्ति की पढ़ाई ही पूरी नहीं हो पाती.
ज़मीन-ज़ायदाद तक गिरवी रख दी जाती है अथवा एक सम्मानजनक स्थिति आते-आते चेहरे पर झुर्रियाँ तक पड़ जाती हैं जबकि सामान्य लगने वाला किन्तु सदाबहार कहलाने वाला वाणिज्य विषय चुनकर व्यक्ति किसी भी विषय में स्वरोज़गार स्थापित कर सकता है, बहुत सारे क्षेत्रों के संस्थानों में कार्य कर सकता है एवं सीमित समय में संतोषप्रद स्थिति को प्राप्त कर सकता है।
6. बड़ों की अवज्ञा
बचपन, किषोर व युवावस्था में कई लोग अपने से बड़ों एवं अपने हितचिंतकों की ज्ञानपूर्ण बातों की अनसुनी करते हैं एवं उनका तिरस्कार तक कर देते हैं परन्तु ये जब स्वयं माता-पिता बनते हैं तब इन्हें अपने माता-पिता की चिंताओं का महत्त्व समझ आता है एवं अपने द्वारा की गयी अवमाननाओं पर पश्चाताप होता है, सम्भव है कि तब तक वे जीवित न बचें हों।
7. संवेदनहीनता
परिवारों में अन्य जीवों को बचपन से ही मारना-भगाना-दुत्कारना सिखा दिया जाता है जो कि एक कुरीति-सी बन पड़ती है जो कि बच्चों के भविष्य के लिये राक्षसी-सी सिद्ध होती है.
जो मनुष्य अन्य मनुष्यों अथवा पेड़-पौधों अथवा पशु-पक्षियों के लिये सहानुभूति व समानुभूति नहीं रखता ऐसा मनुष्य जब स्वयं किसी पीड़ा से गुज़र रहा हो तो प्रकृति से ऐसी अपेक्षा कैसे कर सकता है कि कोई उसकी सहायता के लिये आये अथवा उसका दुःख दूर करे। भरी जवानी में संवेदनहीन रहे लोगों को अपना बुढ़ापा बेसहारा लगे तो इसमें कैसा आष्चर्य!
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8. समय का कुप्रबन्धन
सुबह बरसों से देर से उठने की आदत तब दूर करनी बड़ी मुश्किल लगती है जब जाब पर जाने के लिये प्रातः सात बजे तैयार होना होता है। मोबाइल में गाने सुनने की आदत तब बास की डाँट खा-खा के सुधरती है जब आफ़िस के कन्साइन्मेण्ट्स पूरे करने में लेट-लतीफ़ी कर दी जाती है।
मोहल्लेवालों व संगी-साथियों से आमने-सामने अथवा मोबाइल पर इधर-उधर के व्यर्थ वार्तालापों का ख़ामियाज़ा तब भुगतना पड़ता है जब व्यक्ति आत्मनिर्भर हो गया हो अथवा उस पर ज़िम्मेदारियाँ आ गयीं हों एवं वह अनावष्यक मेल-मिलापों में उलझकर अपने आवश्यक कार्यों को बर्बाद कर बैठता है।
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9. बचत न करना
वर्तमान में पेट काटकर अनिष्चित भविष्य की तैयारियाँ करने को नहीं बोल रहे परन्तु जहाँ तक हो सके थोड़ी-बहुत बचत करनी ही चाहिए ताकि आपात स्थिति में किसी के सामने हाथ न फैलाने पड़ें.
भोग-विलास में पैसे उड़ाने के बाद यदि कोई अपने आप को दीन-दुःखी घोषित करे तो वास्तव में वह दयनीय नहीं हो जाता क्योंकि उसने अनुकूल परिस्थिति में बचत नहीं की अथवा धन व्यर्थ उड़ाया इसीलिये आज सामान्य परिस्थितियाँ भी उसे प्रतिकूल लग रही हैं।
10. परनिन्दा
बचपन में यह आदत प्रायः घरवालों द्वारा लगायी जाती है किन्तु इसका असर जब बड़े होने पर पड़ता है तब बड़ी मानहानि होती है अथवा नाक कटती है क्योंकि इधर से उधर व उधर से इधर पीठ-पीछे लगायी जाने वाली आग हर तरफ़ से अपना ही घर भी जलाती है।
इस चिन्गारी से अच्छे-खासे सम्बन्ध नासमझियों व ग़लतफ़हमियों की गठरी के नीचे दबकर दम तोड़ देते हैं। अतः मुँह पर साफ़ व अच्छे-से बोलने की आदत डालें।
11. सबको ख़ुश करने की आदत
‘किसी को बुरा न लगे’ आपका ऐसा सोचना ठीक हो सकता है परन्तु इस चक्कर में अपने समय व ध्यान को नाश करना ठीक नहीं, आप स्वयं विचारें कि सामने वाले व्यक्ति के पास क्या आप आख़िरी विकल्प हैं ? क्या वह सच में उस बात के लिये ज़रूरतमंद अथवा दूध का धुला है अथवा आप बस उसके आसान शिकार बने जा रहे हैं ?
उदाहरण के लिये बचपन से दूसरों को महँगे गिफ़्ट देने अथवा हर साल उपहार का मूल्य बढ़ाने अथवा ‘तू तो अब कमाने लग गया है फिर भी सस्ता गिफ़्ट’ जैसी बातों से बचने अथवा इन बातों में आ जाने वाले व्यक्ति अपने संसाधन इन्हीं सब में लुटा बैठते हैं.
आपने कई परिवारों में देखा ही होगा कि घर की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति में घर का मुखिया तरह-तरह की Problems गिनाते हुए कँजूसी कर लेता है परन्तु बाहर वालों में लुटाने के लिये अथवा Social States दिखाने के लिये ख़ूब सारे नोट न जाने कहाँ से बेधड़क आ जाते हैं।
12. ‘नहीं’ न बोल पाना
औपचारिकता तो कभी सामाजिकता के नाम पर व्यक्ति हामी भर देता है जिसका मूल्य उसे अपने समय-श्रम व धन का नाष करते हुए चुकाना पड़ता है जिन्हें कि वह किसी भले कार्य में लगा सकता था.
तथाकथित मित्रों व रिश्तेदारों की हाँ में हाँ मिलाने से पहले अपनी आत्मा से उस बात के औचित्य के बारे में अवश्य मेव पूछ लिया करें। विभिन्न आयोजनों के लिये कोई काॅल करे अथवा घर आकर आमंत्रण-पत्र देकर जाये तो भी आपको सार्थकता-निरर्थकता का विचार करना चाहिए।
व्यर्थ में मान-अपमान अथवा सामाजिक सम्मान जैसी निरर्थक बातों को सोचकर बहती धारा में साथ हो लेना कहाँ से तर्क संगत है ? परिजनों मित्रों में बर्बाद जीवन अवश्य पढ़िएगा। आयोजन आदि में आपके न जाने से आपके उस ‘लंगोटिया यार’ या रक्त-रिश्तेदार अथवा परिवार का कुछ नहीं जाने वाला, न ही आपके जाने से उसका कुछ भला होने वाला है।
13. इलेक्ट्रानिक गजेट्स का अनावश्यक प्रयोग
बात-बात पे मोबाइल में आँखें धँसा लेने की आदत तब भी दुःख देती है जब कम उमर में ही बूढ़े बाबूजी जैसे चष्मा लगाये घूमना पड़ता है। इन्टरनेट को उपयोगी मानने का भ्रम तब टूटने लगता है जब साधारण से पहाड़ों अथवा छोटे-छोटे गुणाभाग के लिये भी मन मोबाइल की ओर भटकता है।
अपने परिजनों के मोबाइल नम्बर भी जब याद न हों एवं कहीं जाना हो तो आसपास के लोगों से सटीक मार्ग पूछने के बजाय गूगल मैप में घुसने को मन चाहे तो समझ लें कि मोबाइल ने आपको नासमझ, आश्रित व नपुंसक बना रखा है। ‘ऑफलाइन सुखी रहने के सरल उपाय’ नामक आलेख अवष्य पढ़ें।
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