पुरी जगन्नाथ धाम का इतिहास Puri Jagannath Temple History In Hindi
Puri Jagannath Temple History In Hindi
लोक-प्रसिद्ध चार धाम में से एक तीर्थ जगन्नाथपुरी है, चतुर्धाम में अन्य धामों में बद्रीनाथ, द्वारका एवं रामेश्वरम सम्मिलित हैं। उड़ीसा में समुद्र तट पर पुरी में जगन्नाथ धाम है.
वास्तव में जिले का नामकरण ‘पुरी’ जगन्नाथपुरी (Puri Jagannath) के ही कारण हुआ है। मुख्यतया यह वैष्णव सम्प्रदाय का मंदिर हैं। यह मंदिर संत रामानन्द से भी जुड़ा रहा है, मंदिर गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय के लिये अधिक महत्त्वपूर्ण है। इस पंथ के संस्थापक श्री चैतन्य महाप्रभु वर्षों तक पुरी में रहे।
Puri Jagannath Temple History In Hindi
जगन्नाथ के अतीत से जुड़े पाँच विवरण सामने आते हैं –
1. एक विवरणानुसार श्रीकृष्ण भक्त इन्द्रद्युम्न के सपने में आकर बोले कि पुरी के निकट सागर तट पर पड़े एक पेड़ के तने में मेरा विग्रह बनाया जाये। राजा ने बढ़ई को खोजने का प्रयास किया तो कुछ दिवसोपरान्त एक रहस्यमय-सा वृद्ध ब्राह्मण आकर बोला कि यह कार्य वह करना चाहता है परन्तु यह कार्य वह बन्द कक्ष में ही करेगा, यदि किसी ने द्वार खोला तो कार्य अपूर्ण छोड़ वह चल देगा।
6-7 दिवसोपरान्त कार्य की ध्वनि आनी सुनायी देनी बन्द हो गयी तो राजा ने द्वार खोल दिया जहाँ कृष्ण का अधूरा विग्रह ही दिखा एवं ब्राह्मण नहीं था तो राजा ने अनुमान जताया कि उसके समक्ष ब्राह्मण के रूप में देवों के वास्तुकार विश्वकर्मा पधारे थे।
राजा चिंतित हो गया विग्रह के हाथ-पैर नहीं बन पाये, मैंने तो उस ब्राह्मण को कहीं कुछ न हो गया हो ऐसा सोचकर द्वार खोल दिया। उस समय वहाँ एक ब्राह्मण वेशधारी नारद मुनि आये एवं राजा को समझाया कि अधूरे विग्रह के लिये यह कृष्ण लीला ही थी, तभी राजा के मन में द्वार खोलने का विचा आया, अतः पश्चाताप की आवष्यकता नहीं।
2. द्वितीय विवरण महाभारत में है जिसके अनुसार माता यशोदा, सुभद्रा एवं देवकी जी वृन्दावन से द्वारका आये हुए थे तो रानियों ने उनसे निवेदन किया कि वे उन्हें श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं के बारे में बतायें।
सुभद्रा जी द्वार पर पहरा दे रही थीं कि यदि कृष्ण व बलराम आ रहे हों तो सबको बता दूँगी किन्तु श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं को सुनने में ये स्वयं भी इतनी मग्न हो गयीं कि कृष्ण-बलराम के आने की सुध ही न रही।
जो सुना उसमें दोनों भाई आनन्द विभोर हो गये कि उनके बाल सीधे खड़े हो गये, नेत्र बड़े हो गये, ओष्ठों पर बड़ा स्मित (मुस्कान) छा गया एवं उनके शरीर भक्ति के प्रेमभाव वाले परिवेष में पिघलने लगे। सुभद्रा इतनी तल्लीन हो गयीं थीं कि उनका शरीर तो सर्वाधिक पिघल गया जिससे जगन्नाथ मंदिर में इनकी ऊँचाई सबसे छोटी नज़र आती है।
अब नारद मुनि आ पहुँचे जिससे सब सचेष्ट हो गये। श्रीकृष्ण का यह रूप देखकर नारद बोल पड़े कि हे प्रभु ! आप कितने सुन्दर लग रहे हैं, इस रूप में आप अवतार कब लेंगे ? तब कृष्ण ने कहा कि कलियुग में वे ऐसा अवतार लेंगे तथा राजा इन्द्रद्युम्न को निमित्त बनाकर इन तीनों ने यह अवतार लिया।
3. मंदिर के उद्गम से जुड़े तृतीय विवरण के अनुसार जगन्नाथ (Puri Jagannath) की मूल मूर्ति (जो कि इन्द्रनील अथवा इंद्रमणि से निर्मित थी) एक अगरु वृक्ष के नीचे मिली थी। इसकी चकाचौध इतनी अधिक थी कि जिसे धर्म ने पृथ्वी के नीचे छुपाने की चेष्टा की।
मालवा-नरेश इंद्रद्युम्न को जब सपने में यह मूर्ति दिखी तो उसने कठोर तप आरम्भ कर दिया एवं विष्णु ने उसे बताया कि वह पुरी के समुद्रतट पर जाये एवं दारु (लकड़ी) का लट्ठा मिलेगा, उसी काष्ठ से वह मूर्ति का निर्माण कराये।
राजा ने आज्ञानुसार उसे खोज लिया। तदनन्तर विश्वकर्मा बढ़ई व कारीगर व मूर्तिकार के रूप में उसके सामने उपस्थित हुए किन्तु इन्होंने यह शर्त रखी कि वे एक माह में मूर्ति तैयार करेंगे परन्तु वे उस दौरान एक कक्ष में बन्द रहेंगे एवं राजा व कोई उस कक्ष में न प्रवेश करे।
जब कई दिवस कोई ध्वनि बाहर तक न सुनायी दी तो माह के अन्तिम दिन उत्सुकतावश राजा ने कक्ष में झाँका तो वृद्ध कारीगर द्वार खोलकर बाहर आ गया एवं कहा कि मूर्तियाँ अभी अपूर्ण हैं व उनके हाथ अभी बने नहीं हैं।
राजा को पश्चाताप होने लगा तो मूर्तिकार ने बताया कि यह सब दैव वश हुआ है व मूर्तियाँ ऐसे ही स्थापित होकर पूजी जायेंगी। इस प्रकार तीनों मूर्तियाँ (जगन्नाथ, बलभद्र एवं सुभद्रा) मंदिर में ज्यों की त्यों स्थापित की गयीं।
4. चतुर्थ विवरण में चारण परम्परा अनुसार द्वारकाधीश सहित बलभद्र व सुभद्रा के अधजले शव यहाँ आये थे जिन्होंने प्राण त्याग के बाद समुद्र तट पर अग्निदाह कर लिया था। समुद्र में उफान आने से पानी भरने से तीनों के शव अधजले ही वहाँ से यहाँ पुरी में बह आये थे।
पुरी के राजा ने तीनों शवों को पृथक-पृथक् रथ में रखा (जीवित होते तो एक रथ में रखा जाता). शवों के रथों को नगर वासियों ने स्वयं खींचा एवं अन्त में उस दारुकाष्ठ की पेटी बनवाकर उसमें शव रखकर धरती माता को समर्पित कर दिये जो शवों के साथ तैरकर आया था।
उसी पुरानी परम्परा को आज भी निभाया जाता है परन्तु इस तथ्य को बहुत कम लोग जानते हैं। अधिकांश व्यक्ति ऐसा मानते हैं कि भगवान जगन्नाथ यहाँ जीवित पधारे थे।
5. पाँचवें विवरण में कुछ इतिहासकारों का विचार है कि इस मंदिर के स्थान पर पहले एक बौद्ध स्तूप हुआ करता था जिसमें गौतम बुद्ध का एक दाँत रखा हुआ था। बाद में इसे श्रीलंका के कैण्डी में ले जाया गया (जहाँ कि यह आज तक है).
उस काल में बौद्ध सम्प्रदाय को वैष्णव सम्प्रदाय ने आत्मसात् कर लिया था एवं तभी से जगन्नाथ-अर्चना लोकप्रिय हो चली। यह लगभग तब हुआ जब दसवीं शताब्दी में उड़ीसा में सोमवंषी राज्य चल रहा था।
महाराणा रणजीत सिंह के रूप में एक सिक्ख सम्राट ने इस मंदिर को प्रचुर परिमाण में स्वर्णदान किया था जो कि उनके द्वारा अमृतसर स्थित स्वर्ण मंदिर में दान किये स्वर्ण से कहीं अधिक था।
उन्होंने अपने अन्तिम दिनों में वसीयत में यह दर्शाया था कि विश्व में अब तक का सबसे बड़ा व मूल्यवान हीरा इस मंदिर में दान कर दिया जाये परन्तु यह सम्भव न हो सका क्योंकि उस समय तक ब्रिटिश ने पंजाब पर अपना अधिकार जमाके उनकी सभी राजसी सम्पत्तियाँ अपने अधीन कर ली थीं।
रथयात्रा
इस मंदिर की वार्षिक रथयात्रा में भगवान जगन्नाथ, इनके भ्राता बलभद्र व भगिनी सुभद्रा तीनों भिन्न-भिन्न भव्य व सुसज्जित रथ में बैठकर नगर यात्रा को निकलते हैं।
वैसे तो मंदिर में दैनिक पूजा की ही जाती है परन्तु यहाँ वार्षिक रथयात्रा भी आयोजित की जाती है। आषाढ़ शुक्ल पक्ष की द्वितीया को यह यात्रा आयोजित की जाती हैं जहाँ श्रद्धालु सुभद्रा, श्रीकृष्ण एवं बलराम के रथ अपने हाथों से खींचते हैं। तीनों मूर्तियों को भव्य-सुसज्जित रथों में 5 किलोमीटर्स तक ले जाया जाता है।
मंदिर का वर्तमान कलेवर
गंगवंश के खोजे गये ताम्र पत्रों से यह ज्ञात हुआ कि वर्तमान मंदिर का निर्माण-कार्य कलिंग राजा अनन्त वर्मन चोडगंग देव ने आरम्भ कराया था। मंदिर के जगमोहन व विमान भाग इनके शासन-काल (सन् 1078-1148) में बनवाये गये थे जबकि सन् 1197 में उड़ीसा-शसक अनंग भीमदेव ने इस मंदिर को वर्तमान कलेवर प्रदान किया था। कलिंग शैली का मंदिर स्थापत्य कला एवं शिल्प के विस्मयकारी प्रयोग से सजा हुआ है।
मंदिर के शिखर पर श्री हरि विष्णु का सुदर्शन चक्र (आठ अराओं वाला) मंडित है जिसे नीलचक्र कहते हैं, यह अष्टधातु-निर्मित है। परिवार की तीनों सन्तानें श्रीकृष्ण (भगवान् जगन्नाथ), सुभद्रा व बलभद्र (बलराम) की मूर्तियाँ गर्भगृह में रत्न मण्डित एक पाषाण-चबूतरे पर स्थापित हैं।
यहाँ की रसोई में सैकड़ों रसोइए अपने सहायकों के साथ कार्य करते हैं जिसे कि भारत की सबसे बड़ी रसोइयों में गिना जाता है। इस विशाल रसोई में भगवान को चढ़ाया जाने वाला नैवेद्य तैयार किया जाता है जिसे महा प्रसाद के रूप में वितरित कर दिया जाता है।
चिलिका झील
जगन्नाथपुरी से लगभग 37 किलोमीटर्स दूर चिलिका झील दुनिया में दूसरी सबसे बड़ी व भारत की पहली सबसे बड़ी समुद्री झील है। यहाँ वर्षा ऋतु में पानी लवण मुक्त लगता है जबकि साल के अधिकांश महीने खारा। यहीं चिलिका अभयारण्य है जो पक्षियों के आसरे के रूप में दूर देशो तक सुविख्यात है।
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Ravina says
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