आपका शादी करना जरुरी है या नहीं Why Marriage Important In Your Life In Hindi
Why Marriage Important In Your Life In Hindi
यहाँ हम बात करेंगे विवाह के प्रयोजन, आधार एवं पर्पस सहित वर्तमान में इसकी आवश्यकता/अनावश्यकता की। हो सकता है कि आपको यह आलेख विवाह-विरोधी लगे किन्तु व्यावहारिक वास्तविकताओं को उजागर करने के लिये पक्ष-विपक्ष के तर्कों व तोड़ों का उल्लेख किया गया है ताकि निष्पक्षता से आप विवाह की यथार्थताओं से अवगत होकर उचित निर्णय कर सकें।
Why Marriage Important In Your Life In Hindi
सर्वप्रथम यह बतायें कि आपने क्यों Marrige किया/करने की इच्छा क्यों है ? इस विषय में कम से कम आधा पन्ना लिखकर ही इस आलेख में आगे पढ़ें। आपके सम्भावित तर्क/कारण व जीवन की यथार्थताओं को दर्शाते तथ्य व खण्डन :
तर्क : यह कैसा सवाल है ? क्या क्यों ! क्योंकि सब करते हैं/परिजनों का दबाव/समाज की रीत इत्यादि !
खण्डन : प्रश्न से भागना कैसा ! सब तो बहुत कुछ करते हैं वह सब आप भी करना चाहेंगे ? अधिकांश या सब यदि कुछ करते हों तो क्या वह सच में ‘अच्छा’ हो जायेगा ? नहीं ना ! रही बात परिजनों की तो क्या आप कठपुतली हैं अथवा परिजनों की सांसारिक आकांक्षा पूर्ति करने की आपने ठान रखी है ? दाम्पत्य व सन्तान सम्बन्धी समस्याओं इत्यादि का निराकरण वह परिवार व समाज करेगा ?
सबकी भावनात्मक, सामाजिक, पारिवारिक, आर्थिक, भौतिक इत्यादि पूर्तियाँ करने की ज़िम्मेदारी वह उठायेगा ? ” शादी ऐसा लड्डू जो खाये वो पछताये, जो न खाये वह भी पछताये तो क्यों न हम खाकर पछतायें “ जैसी विवाह-समर्थक मूर्खताओं में न आयें। व्यर्थ की इच्छाओं के चक्रव्यूह को तोड़ें तो पता चलेगा कि जीवन में कुछ अच्छा करने को कितना कुछ है। पढ़ें- ‘जीवन की सार्थकता से 41 उपाय’।
अब तक के पूरे जीवन में बहुत सारा समय, ऊर्जा, शक्ति, ध्यान, धन व श्रम परिजनों, रिश्तेदारों व संगी-साथियों में नाश कर दिया, अब भी वापस रिवर्स गियर लेकर अतीत जैसी स्थितियाँ बनाना कौन-सी बुद्धिमत्ता होगी पढ़ें- ‘परिजनों, रिश्तेदारों व तथाकथित संगी-साथियों में जीवन-नाश’।
तर्क : बच्चे पसन्द हैं/वंशवृद्धि/सन्तानोत्पत्ति इत्यादि !
खण्डन : न तो विवाह मानव-जीवनोद्देष्य है, न ही सन्तानोत्पत्ति विवाह का उदेश्य। वंशवृद्धि जैसी पाषविक इच्छा क्यों ? बच्चे यदि पसन्द हैं तो किसी अनाथ को अपनाकर उसका पालन-पोषण करें तो बड़ा अच्छा होगा, बजाय की प्रकृति में सात अरब में एक और बोझ बढ़ाने के।
तर्क : विवाह से स्त्री-पुरुष का अधूरापन पूर्ण होता है !
खण्डन : आप तो रामभक्त शबरी, कृष्णभक्त मीरा, हनुमानजी, परशुराम, सुवासा, सनत्कुमारों एवं विभिन्न साधुओं-साध्वियों को अधूरा कह रहे हैं। परमात्मा का प्रत्येक अंश स्वयं में परिपूर्ण होता है। जनसंख्या-वृद्धि इत्यादि इच्छाओं के लिये समाज द्वारा बनायी गयी परम्पराओं में न बहें।
तर्क : एक समय बाद अकेलापन खलेगा !
खण्डन : यह तो व्यक्ति विशेष की मानसिकता पर निर्भर है, विवाहित व्यक्ति की बात करें तो विवाह के कुछ वर्षों बाद वह भी ‘अकेला’ अनुभव कर सकता है; हो सकता है कि अविवाहित अपने जीवन से अधिक संतुष्ट व विवाहित से तुलना में अधिक तनावरहित हो।
तर्क : कामेच्छा की वैध पूर्ति का माध्यम !
खण्डन : वास्तव में ‘काम’ व्यक्ति की कोई आवश्यकता है ही नहीं, यह तो वह इच्छा है जो की जाती है, अपने आप नहीं होती, यौनाकर्षण को स्वाभाविक न समझें. वास्तव में व्यक्ति ‘काम’ के बारे में सोचता है और फिर उसमें रस ढूँढने की फिराक में उस दिशा में तर्क खोजने की राह पर चल पड़ता है। देखें ध्यान-योग वाला आलेख। ‘सेक्स से 31 हानियाँ’ भी अवश्य पढ़ें।
भोजन एक आवश्यकता है इसलिये भूख को नैसर्गिक सहज इच्छा कहा जा सकता है परन्तु ‘काम’ कोई मानसिक-षारीरिक आवश्यकता नहीं, मात्र एक मनगढ़ंत इच्छा है। स्मरण रखें कि कामेच्छा मन से ही की जाती है, यह कोई आवश्यकता नहीं। इसे मारे नहीं, जड़ से उखाड़ फेंकें, इसकी नकारात्मकताओं व निरर्थकताओं का बोध होगा तो आप स्वयं इससे उबर जायेंगे। ‘कामेच्छा के समूल नाश के 21 उपाय’ भी पढ़ें।
कामेच्छा से परे उठकर ब्रह्मचर्य की शक्ति को समझें। ‘काम’ को कोई सात्त्विक, पुण्यप्रद, उचित कर्म कौन कह सकता है ? कोई नहीं। जिन ईश्वरीय अवतारों व भक्तों ने विवाह किया उनमें प्रभु-निर्देश अथवा कोई न कोई महान् उद्देश्य निहित था परन्तु वर्तमान में ऐसा कोई निर्देश किसी को नहीं दिया जा रहा, न ही गर्भ में कोई ईश्वरीय अंश आने वाला है।
न ही कोई तपस्या इत्यादि का प्रकरण है, यहाँ तक कि पुनीत उद्देष्यों के लिये विवाह करने वालों में गर्भधारण भी अयोनिक होने के उदाहरण ढेरों हैं, जैसे कि कार्तिकेय व गणेश जी की उत्पत्ति षिव-पार्वती के शारीरिक मिलन से नहीं हुई।
यह भी ध्यान रहे कि जो भी विवाह, घर-गृहस्थी इत्यादि में पड़ा वह विभिन्न समस्याओं, चक्रों में उलझता गया; षिव, कृष्ण के वैवाहिक जीवन दुविधाओं व नयी-पुरानी समस्याओं से भरे-पूरे होने के अनेक उदाहरण हैं। शिव को तो शक्ति-अवतारिणी सती व पार्वती के हठ एवं तारकासुर के वध की विवशता में गृहस्थ रूप धरना पड़ा। वे तो पहले अर्द्धनारीश्वर रूप में चिर समाधि में प्रसन्न थे।
तर्क : तो फिर विवाह की परम्परा प्राचीन काल में बनायी ही क्यों गयी अथवा काम को पुरुषार्थ-चतुष्ट्य में क्यों गिना गया ?
खण्डन : परमात्मा ने साकार रूप धरे एवं कुछ को धरती पर भेजा कि वे प्रभु के सिद्धान्तों व आदर्शो की स्थापना करें। भगवद भक्ति का प्रचार-प्रसार व प्रभुलीलाओं में सहायक होने के लिये सन्तानोत्पत्ति व गुरु-शिष्य परम्परा स्थापित करें परन्तु अब कितने लोग उपरोक्त उद्देष्यों को ध्यान में रखकर विवाह करते हैं ? इतनी अधिक जनसंख्या पहले से है उसे भक्ति की दिशा में ले जाने के बजाय नवीन उत्पत्ति की क्या आवश्यकता ?
साक्षात् ब्रह्मदेव ने सनत्कुमारों को सन्तानोत्पत्ति का निर्देश दिया था परन्तु धर्मी सनत्कुमारों ने सदैव ‘ बालक बने रहने ’ का निर्णय कर लिया ताकि यौवन-सम्बन्धी काम-व्याधियाँ न सता सकें एवं इस प्रकार ये ब्रह्मा की अवहेलना करके भक्ति में लीन होने वहाँ से निकल गये। धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष पुरुषार्थ-चतुष्ट्य का ग़लत मतलब न निकालें.
वास्तव में पुरुषार्थ के रूप में जब ‘काम’ शब्द का उल्लेख मिलता है तो उसे ‘शारीरिक सम्बन्ध’ रूपी संकुचित तात्पर्य में न देखें, काम का विस्तृत अर्थ विभिन्न कामनाएँ हैं, जो ”इसे पूरी कर लूँ, उसे पूरी कर लूँ“ इत्यादि नश्वर कामनाओं के कुचक्र से उबर जाता है एवं निष्काम हो जाता है, बस प्रभु प्राप्ति ही जिसकी कामना रह जाती है उसने इस पुरुषार्थ को पा लिया। भीष्म ने ‘ गृहस्थाश्रम ’ व काम में उलझे बिना ही इसे पार कर लिया।
सिद्धार्थ गौतम को जब गृहस्थी-प्रवेष रूपी अपनी भूल का मान हुआ तो वे सच्चे ज्ञान व मुक्ति की प्राप्ति हेतु रात्रि में उसी क्षण निकल गये एवं कालान्तर में गौतम बुद्ध कहलाये। इतनी-सी बात समझ जायें तो बेहतर रहेगा.
जब मुक्ति ही उद्देष्य है तो बन्धन में पड़ना क्यों ? वास्तव में मोक्ष ही जीवनोद्देष्य होता है, विवाह रूपी अतिबन्धनकारी शृंखला में प्रवेश करते ही व्यक्ति जन्म-जन्मान्तर के विभिन्न कर्मफलों के जाल में उलझता जायेगा एवं मूल जीवनोद्देष्य से दूर होता जायेगा।
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