श्रीमद्भगवद्गीता का 51 सूत्री सम्पूर्ण सार जो जीवन बदल दे Shrimad Bhagwat Geeta Gyan In Hindi
Shrimad Bhagwat Geeta Gyan In Hindi
दोस्तों, श्रीमदभागवतगीता ज़िन्दगी जीने और जिंदगी को आसानी से आगे बढाने वाला वह जीवन सार है जो आपको जीवन में हमेशा मजबूत और सफल बनाता है. आज इस पोस्ट में हम आपके साथ शेयर कर रहे है भगवतगीता का 51 सूत्री सार जो आपको जरुर हेल्प करेंगे और आपको एक नया ज्ञान जरुर सीखने को मिलेगा.
Shrimad Bhagwat Geeta Gyan In Hindi
1. जय-पराजय, लाभ-हानि, सिद्धि-असिद्धि, सुख-दुःखादि द्वंद्वों को समान समझ, इन्द्रियों व उनके विषयों के संयोग-वियोग से विचलित व्याकुल मत हो तभी मोक्ष सम्भव हो सकता है।
2. इस लोक व स्वर्गादि के भोग – एशवर्य में न डूबते हुए परमात्मा में ही मन को स्थिर कर।
3. सकाम कर्म न कर, कर्म-कुशलता , पुण्यलोभ छोड़ दे, कर्मबन्धन तोड़ दे। महापापी काम का दृढ़ता से नाश कर डाल।
4. भगवदाज्ञानुसार केवल भगवान् के लिये कर्म कर ताकि तेरे नवीन कर्म न बनें।
5. बुद्धि को मोह रूप दलदल से भली-भाँति पार करा, वैराग्य को प्राप्त हो।
6. इन्द्रियों के विषयों की ओर आकर्षित न हो, उनका विचार भी न कर, उन्हें मन व तन दोनों से त्याग दे, कामना भी न होगी, मेरे परायण हो, मेरे ध्यान में बैठ, मुझमें चित्त लगा।
7. अनन्य भाव से मेरा होजा, अर्थात् मन के अन्य हर भाव को त्याग दे। मेरी अनन्यभक्ति, अव्यभिचारिणी भक्ति कर, कुछ और सोच भी मत।
8. जो कर्म निर्दोष जीवन-निर्वाह के लिये आवश्यक हों एवं मुझ तक तुझे पहुँचायें उन्हें ही कर, वह भी निष्काम भाव से।
9. नवद्वारों से सर्वकर्मों का त्याग कर आनन्दपूर्वक सच्चिदानन्दघन परमात्मा के स्वरूप में स्थिर रह।
10. ब्रह्मचर्य व अहिंसा का व्रत धारण कर। परमेश्वर के नाम-जप में लीन रह।
11. नेत्रों को बन्द कर भृकुटियों के मध्य ध्यान एकाग्र कर मेरे स्वरूप का चिन्तन कर, हृदय में ऊँ उच्चारण कर।
12. परमात्मा के सिवाय कभी कुछ भी चिन्तन-मनन न किया कर। चित्त यदि किसी और विषय में जाये तो उसे वहाँ से खींच ला व पुनः प्रभु में लगा।
13. हर विषय, क्रिया, विचार व कर्म सबको तजकर करने योग्य कर्म ही कर।
14. स्वार्थ व पक्षपात से रहित होकर सब पक्षों का हित कर, भलाई चाह।
15. अभ्यास व वैराग्य से मन को वश में कर। इन्द्रियों को विषयों से हटाकर परमात्मा में लगाने प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करने वाला अनेक जन्मों के संस्कारबल से इसी जन्म में समस्त पापों से मुक्त हो तत्काल ही परमगति को प्राप्त कर सकता है।
16. आत्मा उद्धार अर्थात् भगवद्प्राप्ति हेतु कर्म करेगा तो दुर्गति न होगी।
17. श्रद्धावान् होकर अन्तरात्मा से भी मुझे निरन्तर भज तो दुःखों के घर व क्षणभंगुर पुनर्जन्म को प्राप्त न होगा।
18. नाशवान् इच्छापूर्ति अथवा सांसारिक पीड़ामुक्ति के बजाय मेरे मूलतत्त्व को जानने के लिये मुझे पूज।
19. मेरी शरण होकर जन्म-मरण बन्धनों से छूटने हेतु अध्यात्म को जान, ब्रह्म व अपने स्वरूप अर्थात् जीवात्मा को जान।
20. हर क्षण मुझे भज तो अन्तकाल में भी मैं स्मरण आऊँगा।
21. जीवात्मा को उसके कर्मों के अनुसार मैं उसे नवीन जन्म प्रदान करता हूँ, व्यर्थ आशा, व्यर्थ कर्म व व्यर्थ ज्ञान वाली राक्षसी, तामसी व राजसी विक्षिप्त चित्तवृत्ति को त्याग, मुझे भक्ति से ही पाया जा सकता है।
22. दृढ़ निश्चय वाला भक्त बन निरन्तर मेरे नाम व गुणों का कीर्तन करते हुए तथा मेरी प्राप्ति के लिये यत्न करते हुए एवं मुझको बारम्बार प्रणाम करते हुए सदा मेरे ध्यान में युक्त होकर अनन्य प्रेम से मेरी उपासना कर।
23. जो खाता, हवन, दान, तप करता है सब मुझे अर्पित करता चल।
24. कोई अतिदुराचारी भी अनन्य भाव से मेरा भक्त होकर मुझे भजे तो वह भी साधु समान है क्योंकि वह यथार्थ निष्चार्य वाला है कि परमेश्वर के भजन के समान अन्य कुछ भी नहीं है।
25. मुझमें अनन्यचित्त वाले भक्तों के लिये मैं सहज-सुलभ हूँ।
26. स्त्री, वैश्य, क्षूद्र व चाण्डाल इत्यादि सभी मेरी शरण होकर परमगति को प्राप्त होते हैं।
27. दृश्य संसार मायामात्र है जिसे तजकर प्रभु में रत् हो जा।
28. निरन्तर मुझमें मन लगा, मुझमें प्राणों का अर्पण कर, मेरी भक्ति की चर्चा द्वारा आपास में मेरे प्रभाव की चर्चाओं एवं गुण सहित मेरे प्रभाव की चर्चा से निरन्तर प्रसन्नता बढ़ा, मुझमें निरन्तर रमण कर।
29. केवल मेरे लिये कर्तव्य कर्म कर, आसक्ति, आकर्षण, रुचि न रख, अपने प्रति अतिबैर रखने वाले के भी प्रति बैरभाव से रहित हो जा।
30. अभिमान त्याग, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी इत्यादि किसी भी देहधारी को किसी भी प्रकार न सता।
31. इस व अन्य लोकों के भोगों सहित जन्म, जरा व मृत्यु इत्यादि में दुःख व दोषों का बारम्बार विचार कर।
32. स्त्री, पुत्र, धनादि के आकर्षण त्याग।
33. विषयासक्त मानवों के समुदाय में प्रेम न रख।
34. अध्यात्मज्ञान में रह, तत्त्वज्ञान में अर्थरूप परमात्मा को ही देख, यह सब ज्ञान है, इसके विपरीत जो कुछ है वह सब अज्ञान है।
35. प्रमाद (इन्द्रियों व अन्तःकरण की व्यर्थ चेष्टाओं), निद्रा व आलस्य सहित अहंभाव, ममत्व (मेरापन) व वासनाओं को त्याग।
36. संसार के समस्त विषयभोगों में सत्ता, सुख, प्रीति व रमणीयता का विचार त्याग, दृढ़ वैराग्य धर।
37. आशा के सैकड़ों फँदों में बँधे हुए मनुष्य काम-क्रोध के वशीभूत होकर विषयभोगों के चक्र में बारम्बार आसुरी योनियों में जन्मते-मरते रहते हैं, अब जब तुझे मानव जन्मरूपी स्वर्णिम मोक्ष-अवसर मिल ही गया है तो दृढ़संकल्पित हो केवल मुझे प्राप्त करने के जतन कर।
38. काम-क्रोध-लोभ ये तीन नरक-द्वार हैं जो आत्मा को अधोगति में ले जाते हैं, सब अनर्थों के मूल इन्हें त्याग दे।
39. कल्याण का आचरण कर अर्थात् उद्धार के लिये भगवदाज्ञानुसार रह।
40. मन की कामनाओं के वषीभूत् हो इधर-उधर मत भाग।
41. भगवच्चिन्तन करते रहने को अपना स्वभाव बना ले।
42. देश-काल व पात्रानुसार दान कर, जैसे कि जिस देश-काल में जिसे जिस मूलभूत वस्तु व सेवा का अभाव हो उसी से उसकी सेवा कर, भूखे, अनाथ, दुःखी, रोगी, असमर्थ, भिक्षु को उसकी वास्तविक आवश्यकतानुरूप अन्न, वस्त्र, औषध इत्यादि सौंप।
43. काम्यकर्मों में पुत्र, स्त्री, धनादि प्रिय वस्तुओं की प्राप्ति के लिये तथा रोगादि संकटों से निवृत्ति के लिये जो यज्ञ, दान, तप व उपासनादि की जाती हैं सबको तू त्याग।
44. ईश्वर की भक्ति, देवताओं का पूजन, माता-पिता, गुरुजनों की सेवा, यज्ञ, दान, तप को कर परन्तु इससे लोक-परलोक में कोई कामना न रख।
45. सत्संग व शास्त्र के अभ्यास से तथा भगवदर्थ कर्म व उपासना करने से मनुष्य की बुद्धि शुद्ध होती है। न कत्र्ताभाव मन में ला, न बुद्धि को सांसारिक पदार्थों व कर्मों में लगने दे तो पाप से दूर रहेगा।
46. शुभ कर्म शीघ्र कर डाल।
47. मात्र सच्चिदानन्दघन परमात्मा में एकीभाव से स्थित हुए श्रीशुकदेवजी व सनकादिकों की भाँति संसार से उपराम (परे) होकर निवृत्तिमार्गी होजा।
48. भगवत्-विषय के सिवाय अन्य सांसारिक विषयों को धारण करना ही व्यभिचार-दोष है, इस दोष से दूर रह अव्यभिचारिणी धारणा शक्ति में रह।
49. मन, प्राण व इन्द्रियों को भगवत्प्राप्ति के लिये भजन, ध्यान व निष्काम कर्मों में लगा।
50. अन्तःकरण का निग्रह कर, इन्द्रियों का दमन कर, धर्मपालन के लिये कष्ट सह, बाहर-भीतर से शुद्ध रह।
51. सब कर्मों को तजकर तू मात्र मेरी शरण आ जा, मैं सर्व शक्तिमान् सर्वाधार परमेश्वर तुझे सब पापों से मुक्त कर दूँगा, शोक मत कर। इस गीता को निष्कामभाव से जो मेरे भक्तों में अर्थ व व्याख्या द्वारा प्रेमपूर्वक पढ़ेगा, प्रचार करेगा वह मेरा भक्त होगा।
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