नारद मुनि की 6 प्रसिद्ध कहानियाँ Narad Muni Stories Kahaniyan In Hindi
Narad Muni Stories Kahaniyan In Hindi
ब्रह्मदेव के मानस-पुत्र एवं देव ऋषि नारद ‘ नारायण ! नारायण !’उच्चारित करते हुए सज्जनों के मार्गदर्शन व दुर्जनों तक के उद्धार के लिये यहाँ-वहाँ विचरण करते रहते हैं। देवर्षि नारद की ज्ञान-गाथाएँ तो बहुसंख्य है किन्तु उनमें से 6 प्रसिद्ध गाथाएं आज आपको बतायी जायेंगी.
Narad Muni Stories Kahaniyan In Hindi
1. पूर्वजन्म :
एक जन्म में नारद एक अति सुन्दर गंधर्व थे तब एक बार जब इन्हें प्रभु महिमागान के लिये देव सत्र में बुलाया गया तो ये सुन्दरियों व अप्सराओं के साथ शृंगार पूर्ण संसारी गीत गा रहे थे तो देवसभा में बैठे प्रजापति ने शापित कर दिया जिससे ये भूलोक में गिरकर क्षूद्र योनि में जन्मे एवं एक दासीपुत्र उपबर्हण कहलाये।
संत जनों का छोड़ा अन्न सेवन करते-करते नारद का पूर्वजन्मकृत पाप-प्रक्षालन होने लगा तथा पूर्वजन्म के प्रताप के कारण ये अभी भी साधुसेवा में तल्लीन हो गये।
साधुओं की साधुता व सुसंगति के प्रभाव में उपबर्हण में पाँच वर्ष की आयु में हरिभक्ति की ललक जाग उठी एवं ये वैरागी हो चले। फिर एक दिन सर्पदंश से इनकी माता की मृत्यु हो गयी, पूर्णविरक्ति हो चुकी थी, गृहत्याग कर ये वन में एक पीपलवृक्ष के नीचे भगवदज्ञान करने लगे।
कुछ ही समय में ये ध्यानस्थ हो गये व प्रभु ने क्षणमात्र दर्शन दिये तथा फिर एक आकाशवाणी हुई कि आगामी जन्म में ये ब्रह्मापुत्र के रूप में जन्म लेंगे व उसमें इन्हें प्रभुदर्शन होते रहेंगे।
ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष की द्वितीया को ये ब्रह्मदेव की गोदी में नारद रूप से जन्मे। नारद जयंती इस वर्ष (2020) में 9 मई शनिवार को पड़ रही है। नारायण भक्ति विस्तारक नारायण भक्त नारद की जय !
2. ब्रह्मचारी नारद :
आपको यह ज्ञात ही होगा की ऋषि नारद सदा ही ब्रह्मचारी रहे. ब्रह्मदेव ने जब नारद से कहा- ” सृष्टि के सृजन में मेरी सहायता करने के लिये विवाह कर लो “, इस आज्ञा का उल्लंघन करते हुए नारद बोले- ” मैं तो सदैव हरि भक्ति में लीन रहता चाहता हूँ “। इस प्रकार देवर्षि नारद आजीवन अविवाहित हैं।
3. कहीं नहीं रुक पाते :
राजा दक्ष की पत्नी आसक्ति ने दस सहस्र पुत्रों को जन्म दिया था परन्तु राजकाज एक ने भी नहीं सँभाला क्योंकि नारद ने सबको माया-मोह से परे मुक्ति के मार्ग पर अग्रसर होने को प्रेरित जो कर दिया था। इसके बाद दक्ष द्वारा जन्मे से एक सहस्र पुत्रों को भी नारद ने मोक्षगामी बना दिया। कुपित दक्ष से नारद को शाप दे दिया कि ये सदैव इधर-उधर भटकते रहेंगे व एक स्थान पर टिक नहीं पायेंगे।
वास्तव में यह शाप देवर्षि नारद के लिये वरदान तुल्य सिद्ध हुआ एवं ये स्थान-स्थान पर भक्ति प्रचार करते एवं सबकी सहायता करते हुए घूमते रहते हैं। वेदों के संदेशवाहक देवर्षि नारद को इस आधुनिक काल में ब्रह्माण्ड का प्रथम पत्रकार एवं संवाददाता कहा जाता है।
4. प्रह्लाद-गुरु नारद :
हिरण्यकशिपु को तपस्यारत् जान इन्द्र ने दैत्यनगरी पर आक्रमण कर दिया व गर्भवती कयाधु को बन्दी बना वे उसे लेकर चल दिये। मार्ग में देवर्षि नारद मिले जिन्होंने इन्द्र को रोका एवं कयाधु की प्राण रक्षा की।
नारद अपनी पुत्री समान कयाधु को आश्रम ले आये एवं हरि भक्ति का पाठ नित्य सिखाते जिससे गर्भस्थ शिशु प्रह्लाद में विष्णु भक्ति के अंकुर फूटने लगे. जब स्वास्थ्य-जाँच के लिये नारद हृद्स्पन्द परखने हेतु कयाधु की कलाई पकड़ते तो गर्भस्थ शिशु के मुख से ‘ऊँ नमो नारायणाय’का स्वर सुनायी देता।
5. वाल्मीकि का आत्म जागरण कराया :
वाल्मीकि पहले एक डाकू थे जो वनमार्ग से होकर आने-जाने वाले पथिकों को लूट लिया करते थे। एक बार नारद आये तो वाल्मीकि उन्हें लूटने के लिये लपके। देव ऋषि ने समझाने का प्रयास किया- ” तुम ऐसा क्यों करते हो , वाल्मीकि बोले- “अपने परिवार के पालन-पोषण के लिये. देव ऋषि ने कहा कि परिजनों से पूछ कर आओ कि क्या वे तुम्हारे इस पाप का फल भोगने में भी तुम्हारे साझेदार होंगे।
वाल्मीकि नारद को वृक्ष से बाँधकर चले गये ताकि नारद कहीं पलायन न कर जायें एवं नारद बंध तोड़ने में समर्थ होते हुए भी स्वेच्छा से ही बँधे रहे। वाल्मीकि के पूछने पर परिजनों ने कहा- हमें पालना तुम्हारा दायित्व है, चाहे जैसे भी पालो परन्तु तुम्हारे पापकर्मों के फल में हम भागीदार नहीं होना चाहेंगे ।
वाल्मीकि को पश्चाताप् होने लगा एवं नारद को बंधन मुक्त करते हुए ये याचना करने लगे कि आप मुझे मुक्ति हेतु मार्गदर्शन करें, उसके बाद डाकू से रामायण के रचनाकार रामभक्त बने वाल्मीकि की यात्रा आपको ज्ञात होगी ही। तपस्या में लीन वाल्मीकि के चारों ओर दीमकों ने वल्मीक (बाँबी) बना ली जिससे इनका यह नाम वाल्मीकि पड़ा।
क्रौंच पक्षी की हत्या करने वाले एक आखेटक को इन्होंने अभिशापित कर दिया, इस समय इनके मुख से एक श्लोक की रचना हो गयी जिससे इन्हें आदिकवि कहा जाने लगा। ब्रह्मदेव के कहने पर महर्षि वाल्मीकि ने रामायण नामक महाकाव्य की रचना की। देव ऋषि नारद से भेंट के समय तक वाल्मीकि का नाम रत्नाकर था।
6. नारद ने जानी माया की परिभाषा :
नारद द्वारा एक बार विष्णु भगवान् से उत्सुकतावश जिज्ञासा व्यक्त की गयी- ” आपकी माया क्या है जिसके वशी भूत भूलोक पर प्राणी दुःख भोगते हैं ?“। विष्णुदेव उत्तर हेतु नारद को अपने साथ भूलोक ले गये।
विशाल मरुस्थल में चलते-चलते इन्होंने अपनी प्यास से नारद को अवगत कराया, नारद दौड़े-दौड़े एक नदी पर पहुँचे जहाँ एक सुन्दर कन्या देखकर उन्होंने कारण जानना चाहा तो उस सुन्दरी ने कहा कि वह निकट ही एक नगर की राजकुमारी है जो कुछ सैनिकों के साथ आते-आते मार्ग भटक गयी है।
उस कन्या को उसके गंतव्य पहुँचाते हुए नारद उसके राज प्रासाद जा पहुँचते हैं। राजकुमारी के पिता नारद से अपनी पुत्री का विवाह करा स्वयं संन्यासी हो जाते हैं। इन सब में नारद भूल ही गये कि मरुस्थल में प्यासे प्रभु उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। अब दो सन्तानें भी हो गयीं एवं फलते-फूलते राज्य में एक बार निरन्तर तीन दिवस अतिवृष्टि होने से राज्य बाढ़ में डूब गया। तेज बहाव में नारद-पत्नी नौका से जल में गिर गयी।
नदी तट पर आकर परिजनों के वियोग में व्याकुल नारद आत्महत्या के विचार से नदी में जैसे की कूदने को हुए तो भगवान् विष्णु ने प्रकट होकर उनका हाथ पकड़ लिया एवं बताया कि यही तो मेरी माया है।
नारद मुनि को अपनी भूल का भान हुआ कि भौगोलिक मार्ग भटकी उस राजकुमारी को उसके गंतव्य तक पहुँचाने की चेष्टा में नारद स्वयं अपने भक्तिमार्ग व अपने लक्ष्य से भटक गये एवं विचलन की यात्रा पर चल पड़े। आध्यात्मिक लक्ष्य से ध्यान हटते ही व्यक्ति संसार के मायाजाल में डूबता चला जाता है। श्रेष्ठ यही है कि प्रभुचरण से परे कुछ सोचा ही न जाये।
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, Jay Mishra says
नारद जी बिल्कुल अनूठे हैं