महाराजा रणजीत सिंह की जीवनी ! Maharaja Ranjit Singh Biography In Hindi
Maharaja Ranjit Singh Biography In Hindi
एक मुसलमान खुशनवीस ने अनेक वर्षो की साधना और श्रम से कुरान शरीफ की एक अत्यंत सुन्दर प्रति सोने और चाँदी से बनी स्याही से तैयार की.
उस प्रति को लेकर वह पंजाब और सिंध के अनेक नवाबो के पास गया. सभी ने उसके कार्य और कला की प्रशंसा की परन्तु कोई भी उस प्रति को खरीदने के लिए तैयार न हुआ. खुशनवीस उस प्रति का जो भी मूल्य मांगता था, वह सभी को अपनी सामर्थ्य से अधिक लगता था.
निराश होकर खुशनवीस लाहौर आया और महाराजा रणजीत सिंह (Ranjit Singh) के सेनापति से मिला. सेनापति ने उसके कार्य की बड़ी प्रशंसा की परन्तु इतना अधिक मूल्य देने में उसने खुद को असमर्थ पाया.
महाराजा रणजीत सिंह ने भी यह बात सुनी और उस खुशनवीस को अपने पास बुलवाया. खुशनवीस ने कुरान शरीफ की वह प्रति महाराज को दिखाई.
महाराजा रणजीत सिंह ने बड़े सम्मान से उसे उठाकर अपने मस्तक में लगाया और वजीर को आज्ञा दी- ” खुशनवीस को उतना धन दे दिया जाय, जितना वह चाहता है और कुरान शरीफ की इस प्रति को मेरे संग्रहालय में रख दिया जाय ”.
Maharaja Ranjit Singh Biography In Hindi
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महाराजा रणजीत सिंह
महाराजा रणजीत सिंह के जीवन पर निबंध
महाराज के इस कार्य से सभी को आश्चर्य हुआ. फ़क़ीर अजिजद्दीन ने पूछा- हुजूर, आपने इस प्रति के लिए बहुत बड़ी धनराशि दी है, परन्तु वह तो आपके किसी काम की नहीं है क्योंकि आप सिख है और यह मुसलमानों की धर्मपुस्तक है.
महाराज ने उत्तर दिया- फ़क़ीर साहब, ईश्वर की यह इच्छा है की मैं सभी धर्मो को एक नजर से देखूँ.
पंजाब के लोक जीवन और लोक कथाओं में महाराजा रणजीत सिंह से सम्बन्धित अनेक कथाएं कही व सुनी जाती है. इसमें से अधिकांश कहानियां उनकी उदारता, न्यायप्रियता और सभी धर्मो के प्रति सम्मान को लेकर प्रचलित है.
उन्हें अपने जीवन में प्रजा का भरपूर प्यार मिला. अपने जीवन काल में ही वे अनेक लोक गाथाओं और जनश्रुतियों का केंद्र बन गये थे.
महाराजा रणजीत सिंह ने देश की अनेको मस्जिदों की मरम्मत करवाई और मंदिरों को दान दिया. उन्होंने काशी विश्वनाथ मंदिर (वाराणसी) के कलश को 22 मन सोना देकर उसे स्वर्ण मंडित किया और अमृतसर के हरिमंदिर पर सोना चढ़वाकर उसे स्वर्ण मंदिर में बदल दिया.
महाराजा रणजीत सिंह का जन्म सन 1780 में गुजरांवाला,भारत (अब पाकिस्तान) में सुकरचक्या मिसल (जागीर) के मुखिया महासिंह के घर हुआ. अभी वह 12 वर्ष के थे कि उनके पिता का स्वर्गवास हो गया.
सन 1792 से 1797 तक की जागीर की देखभाल एक प्रतिशासक परिषद् (council of Regency) ने की. इस परिषद् में इनकी माता- सास और दीवान लखपतराय शामिल थे. सन 1797 में महाराजा रणजीत सिंह ने अपनी जागीर का समस्त कार्यभार स्वयं संभाल लिया.
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महाराजा रणजीत सिंह ने सन 1801 में बैसाखी के दिन लाहौर में बाबा साहब बेदी के हाथों माथे पर तिलक लगवाकर अपने आपको एक स्वतंत्र भारतीय शासक के रूप में प्रतिष्ठत किया.
40 वर्ष के अपने शासनकाल में महाराजा रणजीत सिंह ने इस स्वतंत्र राज्य की सीमाओं को और विस्तृत किया. साथ ही साथ उसमे ऐसी शक्ति भरी की किसी भी आक्रमणकारी की इस ओर आने की हिम्मत नहीं हुई.
महाराजा के रूप में उनका राजतिलक तो हुआ किन्तु वे राज सिंहासन पर कभी नहीं बैठे. अपने दरबारियों के साथ मनसद के सहारे जमीन पर बैठना उन्हें ज्यादा पसंद था. 21 वर्ष की उम्र में ही रणजीत सिंह ‘महाराजा’ की उपाधि से विभूषित हुए. कालांतर में वे ‘शेर – ए – पंजाब’ के नाम से विख्यात हुए.
महाराजा रणजीत सिंह एक अनूठे शासक थे. उन्होंने कभी अपने नाम से शासन नहीं किया. वे सदैव खालसा या पंथ खालसा के नाम से शासन करते रहे.
एक कुशल शासक के रूप में रणजीत सिंह अच्छी तरह जानते थे की जब तक उनकी सेना सुशिक्षित नहीं होगी, वह शत्रुओ का मुकाबला नहीं कर सकेगी. उस समय तक ईस्ट इंडिया कम्पनी का अधिकार सम्पूर्ण भारत पर हो चूका था. भारतीय सैन्य पद्दति और अस्त्र – शस्त्र यूरोपीय सैन्य व्यवस्था के सम्मुख नाकारा सिद्ध हो रहे थे.
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सन 1805 में महाराजा ने भेष बदलकर लार्ड लेक शिविर में जाकर अंग्रेजी सेना की कवायद, गणवेश और सैन्य पद्दति को देखा और अपनी सेना को उसी पद्दति से संगठित करने का निश्चय किया.
प्रारम्भ में स्वतन्त्र ढंग से लड़ने वाले सिख सैनिको को कवायद आदि का ढंग बड़ा हास्यापद लगा और उन्होंने उसका विरोध किया पर महाराजा रणजीत सिंह अपने निर्णय पर दृढ रहे.
महान इतिहासकार जे. डी कनिंघम ने कहा था-
” निःसंदेह रणजीत सिंह की उपलब्धियाँ महान थी. उसने पंजाब को एक आपसी लड़ने वाले संघ के रूप में प्राप्त किया तथा एक शक्तिशाली राज्य के रूप में परिवर्तित किया ”.
महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल में किसी को मृत्युदंड नहीं दिया गया, यह तथ्य अपने आप में कम आश्चर्यजनक नहीं है. उस युग में जब शक्ति के मद में चूर शासकगण बात बात में अपने विरोधियो को मौत के घाट उतार देते थे.
रणजीत सिंह ने सदैव अपने विरोधियो के प्रति उदारता और दया का दृष्टिकोण रखा. जिस किसी राज्य या नवाब का राज्य जीत कर उन्होंने अपने राज्य में मिलाया उसे जीवनयापन के लिए कोई न कोई जागीर निश्चित रूप से दे दी.
एक व्यक्ति के रूप में महाराजा रणजीत सिंह अपनी उदारता और दयालुता के लिए बहुत प्रसिद्ध थे. उनकी इस भावना के कारण उन्हें लाखबख्श कहा जाता था.
शारारिक दृष्टि से रणजीत सिंह उन व्यक्तियों में से नहीं थे, जिन्हें सुदर्शन नायक के रूप में याद किया जाये. उनका कद औसत दर्जे का था. रंग गहरा गेहुँवा था. बचपन में चेचक की बीमारी के कारण उनकी बाई आँख ख़राब हो गयी थी. चेहरे पर चेचक के गहरे दाग थे परन्तु उनका व्यक्तित्व आकर्षक था.
तत्कालीन ब्रिटिश गवर्नर ज़नरल लार्ड विलियम बेटिंक ने एक बार फ़क़ीर अजिजमुद्दीन से पुछा की महाराजा की कौन सी आँख ख़राब है. फ़क़ीर साहब ने उत्तर दिया – ” उनके चेहरे पर इतना तेज है कि मैंने कभी सीधे उनके चेहरे की ओर देखा ही नहीं. इसलिए मुझे यह नहीं मालूम की उनकी कौन सी आँख ख़राब है ”.
महाराजा रणजीत सिंह का 27 जून सन 1839 में लाहौर में देहावसान हो गया. उनके शासन के 40 वर्ष निरंतर युद्धों – संघर्षो के साथ ही साथ पंजाब के आर्थिक और सामाजिक विकास के वर्ष थे, रणजीत सिंह को कोई उत्तराधिकारी प्राप्त नहीं हुआ.
यह दुर्भाग्य की बात थी. महाराजा रणजीत सिंह की कार्यशैली में अनेक ऐसे गुण थे, जिन्हें वर्तमान शासन व्यवस्था में भी आदर्श के रूप में भी सम्मुख रखा जा सकता है.
वे शेर-ए पंजाब के नाम से हमेशा प्रसिद्ध रहेंगे. ऐसे महान शासक को हमारा नमन.
धन्यवाद !
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